आज के इस पोस्ट में हम भगवान् श्री गणेश को समर्पित गणेश अथर्वशीर्ष पाठ संस्कृत में उसके हिंदी अनुवाद के साथ जानेगें। साथ हीं साथ गणेश अथर्वशीर्ष पाठ विधि तथा उससे होने वाले लाभों से भी हम आपको अवगत करायेगें।
भगवान गणेश बुद्धि, ज्ञान, यश तथा सभी भौतिक सुखों को प्रदान करने वाले देवता हैं। श्री गणेश के पूजन से सभी पाप तथा ग्रह-दोष दूर हो जाते हैं।
भगवान गणेश के पूजन तथा उनकी कृपा प्राप्ति के लिए सनातन धर्म में अनेकों मंत्र तथा स्तोत्र का उल्लेख मिलता है। श्री गणपति अथर्वशीर्ष भगवान् गणेश को समर्पित उन सभी मन्त्रों और स्तुतियों में विशेष स्थान रखता है। इसे भगवान् गणेश की वैदिक प्रार्थना भी कहा जाता है।
गणेश अथर्वशीर्ष पाठ संस्कृत में
गणेश अथर्वशीर्ष जीवन के सभी दुःख, कष्ट, शोक, विघ्न और बाधाओं से रक्षा करता है। साथ हीं साथ इस मंत्र के जाप से सामाजिक प्रतिष्ठा और धन-सम्पदा में भी वृद्धि होती है।
तो चलिए, सबसे पहले हम भगवान् श्री गणेश को समर्पित गणेश अथर्वशीर्ष पाठ संस्कृत में पढ़ते हैं।
गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ हिंदी में
भगवान गणेश की कृपा प्राप्ति के लिए शास्त्रों में अनेकों स्तोत्र, मंत्र व प्रार्थनाओं का उल्लेख मिलता है। परन्तु उनमे से गणेश अथर्वशीर्ष, भगवान् श्री गणेश को समर्पित एक ऐसी वैदिक स्तोत्र है जो शीघ्र हीं मनोवांछित फल को प्रदान करती है।
गणेश अथर्वशीर्ष मूल रूप से तो संस्कृत में लिखा है परन्तु यदि आप इसे संस्कृत भाषा में पढ़ने में असहज महसूस कर रहे हों तो आप गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ हिंदी में भी कर सकते हैं।
यहाँ हम गणेश अथर्वशीर्ष का हिंदी अनुवाद बताने जा रहे हैं, जिसका पाठ कर भी आप श्री गणेश जी की कृपा को प्राप्त कर सकते हैं।
गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ हिंदी में
ॐ नमस्ते गणपतये
॥ शांति पाठ ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाग्ँसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायूः ।
अर्थ: हे देववृंद, हम अपने कर्णों के माध्यम से कल्याणकारी वचनो को सुनें। जो भी याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं, हम अपनी आंखों से उस मंगलमय कार्यों को सम्पादित होते देखें। तथा हे देववृंद, रोगमुक्त इंद्रियों एवं स्वस्थ शरीर के माध्यम से आपकी आराधना करते हुए हम भगवान् श्री ब्रह्मा द्वारा निर्धारित आयु को प्राप्त करें।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थ: महान कीर्तिवान तथा ऐश्वर्यशाली देवराज इन्द्र हमारा कल्याण करें, विश्व के ज्ञान स्वरूप, सर्वज्ञ तथा सबको पोषण देने वाले पूषा अर्थात भगवान् सूर्य हमारा कल्याण करें, जिनके चक्र के समान गति को कोई रोक नहीं सकता वे गरुड़ देव हमारा कल्याण करें, अरिष्टनेमि जो प्रजापति हैं तथा सभी पापों का नाश करने वाले हैं वे हमारा कल्याण करें, वेद वाणी के स्वामी, सतत वर्धनशील बृहस्पति हमारा कल्याण करें। हे ईश्वर सर्वत्र शांति की स्थापित हो।
ॐ नमस्ते गणपतये ॥
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि ।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि ।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि ।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि ।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ।
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ॥१॥
अर्थ: भगवान गणपति को मेरा नमस्कार है। हे गणेश तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो। एकमात्र तुम्हीं कर्ता हो। तुम्हीं एकमात्र धर्ता हो। तुम्हीं एकमात्र हर्ता हो। निश्चय हीं तुम्हीं सब रूपों में उपस्थित ब्रह्म हो। तुम हीं साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।
ऋतं वच्मि । सत्यं वच्मि ॥२॥
मैं न्यायसंगत कहता हूं। सत्य कहता हूं।
अव त्वं माम् । अव वक्तारम्।
अव श्रोतारम्। अव दातारम्।
अव धातारम्। अवानूचानमव शिष्यम्।
अव पश्चात्तात्। अव पुरस्त्तात्।
अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात्।
अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
अर्थ: हे श्री गणेश, आप मेरी रक्षा करो। आप वक्ता अर्थात बोलने वाले की रक्षा करो। आप श्रोता अर्थात सुनने वाले की रक्षा करो। आप दाता की रक्षा करो। आप धाता की रक्षा करो। व्याख्या करने वाले आचार्य की रक्षा करो। आप शिष्य की रक्षा करो। आप पश्चिम से रक्षा करो। आप पूर्व से रक्षा करो। आप उत्तर से रक्षा करो। आप दक्षिण से रक्षा करो। आप ऊपर से रक्षा करो। आप नीचे से रक्षा करो। आप सब ओर से मेरी रक्षा करो। आप चारों ओर से मेरी रक्षा करो।
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदा द्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
हे गणपति, तुम हीं वाङ्मय तथा चिन्मय हो। तुम हीं आनंदमय हो। तुम हीं ब्रह्ममय हो। तुम हीं सच्चिदानंद और अद्वितीय हो। तुम हीं प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम हीं ज्ञानमय तथा तुम्हीं विज्ञानमय हो।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः॥
त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
अर्थ: ये संपूर्ण जगत तुमसे उत्पन्न होता है। ये संपूर्ण जगत तुममें हीं सुरक्षित रहता है। ये सम्पूर्ण जगत तुममे हीं विलय को प्राप्त होगा। ये सम्पूर्ण जगत तुममें हीं प्रतीति हो रही है। तुम हीं भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। तुम हीं चारों प्रकार की वाणी अर्थात परा, पश्चंती, बैखरी और मध्यमा हो।
त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः॥
त्वं देहत्रयातीतः ॥ त्वं कालत्रयातीतः॥
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः॥
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं॥
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं
इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्॥६॥
तुम प्रकृति के तीनों गुणों सत्व, राजस और तमस, से परे हो। तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और वर्तमान तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो। प्रत्येक योगीजन तुम्हारा हीं नित्य ध्यान करते हैं। तुम हीं ब्रह्मा हो, तुम हीं विष्णु हो, तुम हीं रुद्र हो, तुम ही इन्द्र हो, तुम हीं अग्नि हो, तुम हीं वायु हो, तुम हीं सूर्य हो, तुम हीं चंद्रमा हो, तुम हीं ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य पर ब्रह्म भी तुम हीं हो।
गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादि तदनंतरम्॥
अनुस्वारः परतरः ॥ अर्धेन्दुलसितम् ॥
तारेण ऋद्धम्॥ एतत्तव मनुस्वरूपम् ॥
गकारः पूर्वरूपम्॥ अकारो मध्यमरूपम् ॥
अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्॥ बिन्दुरुत्तररूपम् ॥
नादः संधानम्॥ संहितासंधिः ॥
सैषा गणेशविद्या॥ गणकऋषिः ॥
निचृद्गायत्रीच्छंदः॥ गणपतिर्देवता ॥
ॐ गं गणपतये नमः॥७॥
‘गण’ के प्रथम शब्दांश ‘ग’ का उच्चारण करने के बाद वर्णों के आदि अर्थात ‘अ’ उच्चारण करें।, उसके बाद अनुस्वार अर्थात ‘म्’ का उच्चारण करें, इसके बाद इसे अधचन्द्र से सुशोभित करें। इस प्रकार गं’ ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप “ॐ गँ” बनता है। ग-कार प्रथम रूप है, अ-कार मध्य रूप है और अनुस्वार अनिम रूप है। बिंदु उत्तर अर्थात ऊपरी रूप है । नाद संधान होता है, ये सभी आपस में मिलकर “ॐ गँ” ये रूप बनाते हैं। इसे गणेश विद्या कहते है, गणक इसके ऋषि हैं, निचृद-गायत्री छन्द है, गणपति देवता है, वह महामंत्र “ॐ गँ गणपतये नमः” है।
एकदंताय विद्महे ।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥८॥
हम एकदन्त को जानते हैं; वक्रतुण्ड का ध्यान करते हैं। वह दन्ती अर्थात गजानन हमें जागृति प्रदान करें। ये मंत्र गणेश गायत्री कहलाता है।
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्ब्रिभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:॥९॥
भगवान् एकदंत अर्थात श्री गणेश चार भुजाओं वाले हैं और वे अपने चारो हाथों में पाश, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए हुए हैं। उनकी ध्वजा पर मूषक का चिह्न है, वे रक्तवर्ण तथा लंबोदर हैं। उनके कर्ण सुप के समान बड़े-बड़े हैं। वे रक्त के समान वस्त्र धारण करने वाले, शरीर पर रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से पूजे जाने वाले हैं। वे भक्तों पर अनुकम्पा करने वाले हैं, जगत का कारण तथा अच्युत हैं, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्री गणेश जी का जो नित्य ध्यान करता है, वह सभी योगियों में श्रेष्ठ है।
नमो व्रातपतये।
नमो गणपतये।
नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्री वरदमूर्तये नमो नमः॥१०॥
व्रातपति को मेरा नमस्कार है। गणपति को नमस्कार है। प्रथम पति अर्थात शिवजी के गणों के अधिनायक को नमस्कार। लंबोदर, एकदंत, शिवजी के पुत्र तथा श्री वरदमूर्ति को नमस्कार है।
॥ फल श्रुति॥
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्वतः सुखमेधते । स सर्वविघ्नैर्नबाध्यते।
स पञ्चमहापापातप्रमुच्यते ॥११॥
यह अथर्वशीर्ष है। जो भी इसका पाठ करता है वो ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। उसके सब प्रकार के विघ्न बाधाएं समाप्त हो जाते हैं। वह सब जगह सुख को प्राप्त करता है। तथा वो पांचों प्रकार के महान पातकों तथा उपपातकों से मुक्त हो जाता है।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति ॥१२॥
अर्थ: जो भी इसका सायंकाल में पाठ करता है, उसके पुरे दिन के पापों का नाश हो जाता है। प्रात:काल पाठ करने से रात्रि के पापों का नाश हो जाता है। जो प्रातः, सायं दोनों समय इसका पाठ करता है वह निष्पाप हो जाता है। वह सभी जगह विघ्नों का नाश कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
इदम् अथर्वशीर्षमऽशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते।
तं तमनेन साधयेत्॥१३॥
यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अपात्र को उपदेश देता है, वह महापापी हो जाता है। इस अथर्वशीर्ष का सहस्त्र बार पाठ करने से उपासक जो भी कामना करता है, उसे सिद्ध कर लेता है।
अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति।
चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान् भवति।
इत्यथर्वण वाक्यं। ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्।
न बिभेति कदाचनेति ॥१४॥
अर्थ: जो भी अथर्वशीर्ष का पाठ करते हुए गणपति को स्नान कराता है, वह वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करते हुए इसका जाप करता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्वण ऋषि का वाक्य है। इसका पाठ करने वाले को कभी भय नहीं होता।
यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति।
स मेधावान् भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति।
स वाञ्छितफलमवाप्नोति।
यः साज्यसमिद्भिर्यजति।
स सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥१५॥
अर्थ: जो दूर्वां के द्वारा भगवान गणपति का यज पूजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो धानी और लाई के द्वारा यज्ञ पूजन करता है वह यशस्वी तथा मेधावी होता है। जो सहस्र मोदकों द्वारा यज और पूजन करता है, वह मनोवांछित फल को प्राप्त करता है। जो देसी गाय के घी युक्त समिधा से यज और पूजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।
महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥ १६॥
अर्थ: यज्ञोपरान्त आठ ब्राह्मणों को सम्यक रीति से भोजन कराने पर व्यक्ति सूर्य के समान तेज प्राप्त कर लेता है। सूर्य ग्रहण में, महानदी में या श्री गणेश की प्रतिमा के समीप इस अथर्वशीर्ष को जपने से इसकी सिद्धि हो जाती है तथा वह महाविघ्न, महादोषों तथा महापापों से भी मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार ये जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है।
ॐ शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः ॥
॥ अथर्ववेदीय गणपति उपनिषद समाप्त ॥
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गणेश अथर्वशीर्ष हिंदी में PDF
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गणेश अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ
गणेश अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करने से परिवार और जीवन के सभी अमंगल दूर हो जाते हैं। किसी भी बुधवार या फिर प्रत्येक माह आने वाली चतुर्थी के दिन भगवान् श्री गणेश के इस स्तोत्र का पाठ विशेष महत्व रखता है।
चलिए अब हम जानते हैं कि गणेश अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ क्या क्या हैं।
मन की चंचलता होती है समाप्त
अगर आपका मन बहुत चंचल और अशांत है तो गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ जरूर करें। इस स्तोत्र के पाठ से मन बहुत शांत तथा मजबूत होता है। और आप विपरीत परिस्थितियों में भी सही निर्णय लेने के काबिल बन जाते हैं।
पढाई में लगता है मन
यदि आप एक विद्यार्थी हैं और आपका मन पढाई में नहीं लगता तो इस स्थिति में भी आपको गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ प्रतिदिन जरूर करना चाहिए। प्रतिदिन इस स्तोत्र के पाठ से बच्चों और युवाओं का मन पढ़ाई पर केंद्रित हो जाता है।
अशुभ ग्रहों का प्रभाव होता है समाप्त
व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली हर शुभ और अशुभ प्रभावों के पीछे ग्रहों का बड़ा योगदान होता है। गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ से अशुभ फल देने वाले अनिष्टकारी ग्रह शांत होते हैं तथा जीवन में शुभ फल प्रदान करने वाले ग्रह को बल मिलता है। जिस कारण वैश्य के जीवन में भाग्य का उदय होना शुरू हो जाता है।
आर्थिक स्थिति होती है मजबूत
गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ साधक के बुरे से बुरे आर्थिक स्थिति को भी ठीक कर उसे सुख और समृद्धि प्रदान करता है। अगर आप अपनी नौकरी या व्यापार में बार बार विफल हो रहे हैं या फिर बहुत प्रयासों के बाद भी उन्नत्ति नहीं मिल पा रही हो तो इस स्थिति में भी आप गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ अवश्य करें।
कार्यों में आने वाली विघ्न होते हैं दूर
सनातन धर्म में श्री गणेश को विघ्नहर्ता भी कहा गया है। किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने के पहले भगवान् श्री गणेश का पूजन करने का विधान हमारे शास्त्रों में बताया गया है। गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ कार्यों में बेवजह आने वाली रुकावटों और विघ्नों को दूर कर व्यक्ति के जीवन का सर्वांंगीण विकास करती है।
शरीर और मन होता है ऊर्जावान
गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ से मन और शरीर से नकारात्मकता समाप्त होती है तथा इनमे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है। जिस कारण व्यक्ति का शरीर और मन अत्यंत ऊर्जावान होने लगता है।
गणेश अथर्वशीर्ष पाठ विधि
भगवान् श्री गणेश प्रथम पूजनीय देव माने गए हैं। सनातन धर्म में किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत भगवान् श्री गणेश की स्तुति व पूजन के बिना नहीं की जाती है।
गणेश अथर्वशीर्ष भगवान् श्री गणेश को हीं समर्पित एक स्तोत्र है, जिसका पाठ यदि आप विधि पूर्वक करें तो मनोवांक्षित फल को शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है।
तो चलिए अब हम जानते हैं गणेश अथर्वशीर्ष पाठ विधि क्या हैं।
गणेश अथर्वशीर्ष पाठ विधि
- गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ प्रातः काल करना उत्तम माना जाता है। अतः प्रातः काल जाग कर स्नानादि से निवृत हो स्वक्ष वस्त्र धारण करें।
- अब अपने घर के मंदिर में भगवान् श्री गणेश की प्रतिमा या चित्र को स्थापित कर उनके समक्ष बैठ जाएँ।
- अपने बैठने के लिए कुश का आसन का प्रयोग करें। कुश का आसन नहीं मिले तो किसी भी साफ आसन पर बैठ सकते हैं।
- इसके बाद आप भगवान् श्री गणेश को चन्दन, सिंदूर और यज्ञोपवीत अर्पित करें। भगवान् श्री गणेश को आक के पुष्प अतिप्रिय हैं, अतः उन्हें आक का पुष्प समर्पित करें।
- भगवान् श्री गणेश को दूर्वा भी बहुत प्रिय है, अतः उन्हें दूर्वा भी समर्पित करें। अगर दुर्वान नहीं मिल पा रहा हो तो आप उन्हें अक्षत भी समर्पित कर सकते हैं।
- तत्पश्चात श्री गणेश के सम्मुख सुगन्धित धुप तथा घी का दीपक जलाएं। तथा भोग के रूप में लड्डू या फिर कुछ भी मीठा श्री गणेश के समक्ष रखें।
- अब आप अपनी मनोकामना भगवान् श्री गणेश से बोलकर गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ शुरू करें।
- गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ आप प्रतिदिन करें तो ये सर्वोत्तम है, परन्तु यदि आप ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं तो प्रत्यें बुधवार को इसका पाठ जरूर करें।
- प्रत्येक महीने के संकष्टी चतुर्थी को इस स्तोत्र का पाठ 21 बार करने से भगवान् श्री गणेश की कृपा बहुत जल्दी प्राप्त हो जाती है।
- यदि आप गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ के बाद एक माला भगवान् श्री गणेश का महामंत्र “ऊं गं गणपतये नमः” का जाप भी कर लेते हैं तो ये और भी ज्यादा प्रभावी बन जाता है।
- ध्यान रखे की शास्त्रों में भगवान श्री गणेश के पूजन में तुलसी पत्र के प्रयोग की मनाही है अतः गणेश जी को भूलवश भी तुलसी पत्र समर्पित नहीं करें।
निष्कर्ष
तो कैसी लगी श्री गणेश को समर्पित गणेश अथर्वशीर्ष से जुडी ये जानकारी। अगर अच्छी लगी हो तो अपने प्रियजनों के साथ इस पोस्ट को शेयर करना मत भूलें। आपकी एक लाइक और एक शेयर भी हिन्दू-धर्म को समर्पित Kubereshwar Dham Sehore के टीम को बल प्रदान करेगा, और समय समय पर हम आपके लिए ऐसे ही अद्भुत जानकारियां लाते रहेंगें।