पढ़ें नारायण कवच अर्थ सहित

आज हम भगवान् विष्णु को समर्पित नारायण कवच अर्थ सहित बताने वाले हैं जिसके जाप मात्र से जातक के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं। नारायण कवच हमारे शरीर और मन की हर प्रकार के भय से रक्षा करती है और शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराती है।

नारायण कवच का पाठ करने वाले जातक का कभी भी अमंगल नहीं हो सकता है। देवराज इंद्र ने नारायण कवच का पाठ कर हीं महा दैत्यराजों से विजय प्राप्त कर अपना राजपाठ वापस लिया था।

नारायण कवच | Narayan Kavach

नारायण कवच का पाठ थोड़ा कठिन प्रतीत हो सकता है परन्तु ये अत्यंत प्रभावशाली तथा समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सुख, सौभाग्य, स्वास्थ्य और समृद्धि प्रदान करने वाला भी है।

तो चलिए आज नारायण कवच अर्थ सहित पाठ कर भगवान् विष्णु के कृपा का भागी बनते हैं।

श्री नारायण कवच
श्री नारायण कवच
श्री नारायण कवच
श्री नारायण कवच

नारायण कवच का पाठ हिंदी में

श्रीमद्भागवत महापुराण के छठे स्कन्द के आठवे अध्याय में श्री नारायण कवच (Narayan Kavach) का उल्लेख मिलता है। किसी भी विषम परिस्थिति में अगर कोई जातक श्री नारायण कवच को धारण करता है तो स्वयं भगवान् श्री हरी विष्णु उसकी हर प्रकार के शत्रुओं से उसकी रक्षा करते हैं।

अगर आप संस्कृत में नारायण कवच का पाठ नहीं कर पा रहे हों तो आप इसे हिंदी में भी पढ़ सकते हैं। तो चलिए अब हम श्री नारायण कवच का पाठ हिंदी में करते हैं।

अथ श्री नारायणा कवच

॥ राजोवाच ॥

यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान्‌ रिपुसैनिकान्‌।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्‌॥ १ ॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्‌ ।
खथाऽऽततायिनः शत्रून्‌ येन गुप्तोऽजयन्मृधे॥ २॥

राजा परीक्षित ने पूछा – भगवन्‌, देवराज इन्द्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना पर खेल-खेल में अनायास ही विजय प्राप्त कर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को मुझे सुनायें और यह भी बताएं कि उन्होंने किस प्रकार सुरक्षित होकर रणभूमि में आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ॥ १-२॥

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः श्रूणु॥ ३॥

श्री शुकदेव जी ने कहा–परीक्षित्‌, जब देवताओं ने विश्वरूप को अपना पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्‍न करने पर विश्वरूप ने उन्हें नारायण कवच का उपदेश दिया। तुम अपने चित्त को एकाग्र करके उसका श्रवण करो॥ ३॥

॥ विश्वरूप उवाच ॥

धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः॥ ४॥

नारायणमयं वर्म संनह्येद भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि ॥ ५॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा॥ ६॥

विश्वरूप ने कहा–देवराज इन्द्र | भय का अवसर आने पर नारायण कवच को धारण कर अपने शरीर को सुरक्षित कर लेना चाहिये। उसकी विधि यह है कि सबसे पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, तत्पश्चात हाथ में कुश की पवित्री धारण कर उत्तर दिशा में मुँह करके बैठ जाएँ।

इसके बाद कवच धारण करने के बाद और कुछ न बोलने का निश्चय करें और पवित्रता से ॐ नमो नारायणाय’ और ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करे |

पहले “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कारपर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगों में विपरीत क्रम से न्यास करे ॥ ४–६॥

करन्यासं ततः कुर्याद्‌ द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ॥७॥

तत्पश्चात ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय – इस द्वादशाक्षर-मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बायीं तर्जनी तक दोनों हाथ की आठ अँगुलियों और दोनों अंगूठों की दो-दो गाँठों में न्यास करे॥७॥

न्यसेद्धृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्‌॥ ८ ॥

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुहिश्यि मन्त्रमूर्तिर्भवेद्‌ बुधः॥ ९॥

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ॥ १०॥

इसके बाद ॐ विष्णवे नमः ‘ इस मन्त्र के पहले अक्षर ॐ का हदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरंध्र में, ‘ष’ का दोनों भौंहों के बीच में, “ण’ का शिखा में, “वे’ का दोनों आँखों में और ‘न’ का शरीर की सब जोड़ों में न्यास करे। तदनन्तर * ॐ मः अस्त्राय फट्‌ ” कहकर दिग्बन्ध करें। इस प्रकार न्यास करने की विधि को जानने वाला व्यक्ति मन्त्र के स्वरूप हो जाता है ॥८ -१०॥

आत्मानं परमं ध्यायेद्‌ ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्‌।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत्‌ ॥ ११ ॥

तत्पश्चात अपनी समस्त 6 शक्तियों, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, धर्म, यश, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण अपने इष्टदेव का ध्यान करें तथा अपने को भी तदरूप ही चिन्तन करे। इसके बाद हीं विद्या, तेज और तप के स्वरूप इस कवच का पाठ करे॥ ११॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान्द
दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः॥ १२॥

भगवान्‌ श्रीहरि गरूर जी के पीठ पर अपने चरण-कमल रखे हुए हैं। जिनकी आठौं सिद्धियाँ अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व सेवा कर रही हैं तथा जो अपने आठ हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश धारण किये हुए हैं। वे ओमकारस्वरुप प्रभु सब प्रकार से मेरी रक्षा करें॥ १२॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-
र्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्‌।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्‌
त्रिविक्रमः खेञ्वतु विश्वरूपः ॥ १३॥

मत्स्यमूर्ति भगवान्‌ जल के भीतर जलजंतुरूपी वरुणपाश से मेरी रक्षा करें। माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रम भगवान्‌ आकाश में मेरी रक्षा करें॥ १३॥

दुर्गष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः
पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं
दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥ १४॥

जिनके भयंकर अट्टहास करने पर सभी दिशाएँ गुंजायमान हो उठी थीं और दैत्यों के गर्भवती पत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्यपतियों के शत्रु भगवान्‌ नृसिंह किले, वन, युद्धस्थल आदि विषम स्थानों में मेरी रक्षा करें॥ १४॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्या भरताग्रजोऽस्मान्‌॥ १५॥

अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को धारण करने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान्‌ मार्ग में, परशुराम भगवान् पर्वतों के शिखरों पर तथा श्री लक्ष्मण और भरत के बड़े भाई भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें॥ १५॥

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः
पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥ १६॥

भगवान्‌ नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान्‌ दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान्‌ कपिल कर्मबन्धनों से मेरी रक्षा करें॥ १६॥

सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा
मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात्
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥ १७॥

परम ऋषि सनत्कुमार कामदेव से, भगवान्‌ हयग्रीव मार्ग से गुजरते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद देव पूजा के समय संभावित सेवापराधों से और भगवान्‌ कच्छप सभी तरह के नरकों से मेरी रक्षा करें॥ १७॥

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद्
द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद्
बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ॥ १८॥

भगवान्‌ धनवन्तरि कुपथ्य अर्थात स्वास्थ्य को हानि पहुंचने वाले आहार से, जितेन्द्रिय भगवान्‌ ऋषभ देव सुख-दुःख आदि भयानक द्वन्द्दों से, यज्ञ भगवान्‌ लोकापवाद से, भगवान् बलराम मनुष्यों के द्वारा दिए गए कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पो के गण से मेरी रक्षा करें॥१८॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद्
बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु
धर्मावनायोरूकृतावतारः ॥ १९॥

महर्षि वेदव्यास जी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों के द्वारा फैलाये गए प्रमाद से मेरी रक्षा करें। धर्म की रक्षा हेतु, महान्‌ अवतार धारण करनेवाले भगवान्‌ कल्कि, पाप बहुल कलियुग के दोषों से मेरी रक्षा करें ॥ १९॥

मां केशवो गदया प्रातरव्याद्
गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्ति
र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥ २०॥

प्रातःकाल, भगवान् केशव अपनी गदा से, दिन के दूसरे भाग चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दिन के तीसरे भाग दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर तथा दिन के चौथे भाग मध्य काल को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें॥ २०॥

देवोऽपराह्ने मधुहोग्रधन्वा
सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे
निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥ २१॥

दिन के पांचवे भाग अपराहन काल में अपना प्रचण्ड धनुष लेकर भगवान्‌ मधुसूदन मेरी रक्षा करें। छठ्ठे भाग, सायंकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, रात के छः भागो में से प्रथम भाग प्रदोष काल मे हृषीकेश, रात के दूसरे भाग अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्धरात्रि के समय अकेले भगवान्‌ पद्मनाभ मेरी रक्षा करें॥२१॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः
प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते
विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥ २२॥

रात्रि के चौथे भाग पिछले पहर में श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, रात में पांचवे भाग उषाकाल में खड्गधारी भगवान्‌ जनार्दन, रात के छठ्ठे भाग सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण संध्याओं में कालमूर्ति भगवान्‌ विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ॥ २२॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि
भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु
कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥ २३॥

हे सुदर्शन ! आपका आकार चक्र की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि की तरह अति तीव्र है। आप भगवान की प्रेरणा से सब ओर भ्रमण करते रहते हें। जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये॥ २३॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो
भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥ २४॥

हे कौमोदकी गदा ! आपसे छूटनेवाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है। हे भगवान्‌ अजित की प्रिय मैं आपका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर-चूर कर दीजिये ॥ २४॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ
पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो
भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ॥ २५॥

हे शंखश्रेष्ठ ! आप भगवान्‌ श्रीकृष्ण के फूँकने मात्र से भयावह नाद करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयंकर प्राणियों को यहाँ से शीघ्र दूर कर दीजिये॥ २५॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य
मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय
द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥ २६॥

हे भगवान् की खड़ग श्रेष्ठ नन्दक ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप ईश्वर की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप दृष्टि रखने वाले मेरे शत्रुओं के नेत्रों को बंद कर उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये॥ २६॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ॥ २७॥

सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ॥ २८॥

ग्रहों, धूमकेतु आदि केतुओं, दुष्ट मनुष्यों, सरीसृप जीवों, दाढ़ोंवाले हिंसक पशुओं, भूत-प्रेतों तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे शुभ के विरोधी हों-वे सभी भगवान के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायँ॥ २७-२८॥

गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥ २९॥

बृहद्‌, रथन्तर आदि सामवेद के स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान्‌ गरुड और विष्वकसेनजी अपने नाम के उच्चारण मात्र के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से रक्षा करें ॥ २९ ॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ॥ ३०॥

श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों को सब तरह की विप्पतियों से बचायें॥ ३०॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ॥ ३१॥

जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत्‌ है, वह वास्तव में भगवान्‌ ही हैं-इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे पाप नष्ट हो जायँँ॥ ३१॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥ ३२॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥ ३३॥

ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव जो लोग कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में ईश्वर का स्वरूप समस्त विकल्पों और भेदों से रहित है, फिर भी वे अपनी माया-शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं । यह बात निश्चित हीं सत्य है । अतः सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीहरि सदा-सर्वत्र अपने सभी स्वरूपों से हमारी रक्षा करें॥ ३२-३३॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥ ३४॥

जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को समाप्त कर देते हैं और अपने तेज से सबके तेज का ग्रास कर लेते हैं, वे भगवान्‌ नृसिंह दिशा-विदिशा में, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर सब ओर से हमारी रक्षा करें ॥ ३४॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ॥ ३५॥

देवराज इन्द्र ! मैंने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया। अब तुम इस कवच से अपने को सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्यपतियों को जीत लोगे॥ ३५॥

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ॥ ३६॥

इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरुष जिस किसी को भी अपने आखों से देख लेता अथवा पैरों से भी छू देता है, वह तत्काल हीं समस्त भयों से मुक्त हो जाता है ॥ ३६॥

न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥ ३७॥

इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेने वालों को राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का डर नहीं होता ॥ ३७॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ॥ ३८॥

देवराज! पुरातन काल की बात है, एक कौशिक गोत्र के ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरुभूमि में त्याग दिया ॥ ३८॥

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ॥ ३९॥

जिस स्थान पर उस ब्राह्मण का मृत शरीर पड़ा था, उसके ऊपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठकर निकले॥ ३९॥

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ॥ ४०॥

इस स्थान पर आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आसमान से धरती पर गिर पड़े। ऐसा होने पर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियोंने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवता की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को गये॥ ४०॥

॥ श्रीशुक उवाच ॥

य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ४१॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित्‌! जो भी मनुष्य इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके समक्ष सभी प्राणी आदर से अपना सर झुका देते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ॥ ४१॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् ॥ ४२॥

॥ परीक्षित्‌! इस तरह शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह नारायण कवच रूपी वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे॥ ४२॥

॥ श्री नारायण कवच समाप्त होता है ॥

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नारायण कवच

नारायण कवच के फायदे

द्वापर युग में राजा परीक्षित ने भी अपने गुरु ऋषि शुक से शत्रुओं से बचने का उपाय पूछा था तो ऋषि शुक ने उन्हें शत्रुओं का नाश करने वाला उसी नारायण कवच धारण करने को कहा था, जिसे ऋषि विश्वरूप ने देवराज इंद्र को सिखाया था।

तो चलिए अब हम जानते हैं कि नारायण कवच के पाठ से हमे और कौन कौन से लाभ की प्राप्ति होती है।

नारायण कवच पाठ के लाभ

  • नारायण कवच का पाठ किसी भी प्रकार के जाने-अनजाने शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है।
  • जो मनुष्य नारायण कवच को धारण कर लेता है उसका कभी अमंगल नहीं होता है।
  • नारायण कवच का पाठ मन में साहस, प्रसन्नता और सकारात्मकता का संचार करता है।
  • नारायण कवच का पाठ विसम से विसम परिस्तिथि में भी साधक को सफलता प्रदान करती है।
  • जो मनुष्य प्रतिदिन नियन पूर्वक नारायण कवच का पाठ करता है वो सब प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है।

निष्कर्ष

तो दोस्तों, कैसी लगी नारायण कवच हिंदी तथा संस्कृत से जुडी ये जानकारी। अगर अच्छी लगी हो तो अपने प्रियजनों के साथ इस पोस्ट को शेयर करना मत भूलें। आपकी एक लाइक और एक शेयर भी हिन्दू-धर्म को समर्पित Kubereshwar Dham Sehore के टीम को बल प्रदान करेगा, और समय समय पर हम आपके लिए ऐसे ही अद्भुत जानकारियां लाते रहेंगें।

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